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पता नहीं कितनी फीस लेगा, कितने चक्कर लगवायेगा, कितनी तारीखे देगा और न जाने क्या – क्या  पट्टी पढ़ायेगा वकील, मन ही मन कचहरी के बाहर खड़ा सोच रहा है आदर्श | जिसके सर पर जितने कम बाल हों या फिर ज्यादा सफ़ेद बाल , उसकी फ़ीस उतनी ही ज्यादा | मानों बढ़ते सफ़ेद बालों के साथ ही फीस बढती हो | सफ़ेद बाल समानुपाती फ़ीस, अच्छा सूत्र है, ये सोचते ही आदर्श के होठों पर हल्की सी मुस्कान आजाती है | मन के समन्दर में निरन्तर चढ़ती - उतरती विचारधाराओं को लिए आदर्श कचहरी में प्रवेश करता है और अपने हमउम्र के वकील को नियुक्त करना ही उचित समझता है |

जैसे ही वह कचहरी में अन्दर पहुँचता है, अपने – अपने ठिकानों पर बैठे हुए वकील देखते ही आदर्श को अपनी – अपनी तरफ खीचतें हैं | जी बताइए सर क्या परेशानी है ? दहेज़ का किस्सा है या फिर तलाक़ का ? सस्ते में निपटा देंगे कुछ तो बोलिए जनाब ? आप ही से कह रहें हैं | लेकिन आदर्श सब को नजरअंदाज करते हुए कुर्सी पर ख़ामोश बैठे हुए एक वकील का चयन करता है | उनके सामने पड़ी बैंच भी पूर्णतया ख़ाली है जो उनके कम अनुभव होने का साफ़ – साफ़ संकेत दे रही है | वकील साहब आदर्श को अपनी ओर आते देख अपनी चुप्पी तोड़ते हैं |
आइये .. आइये सर बैठिये |
आदर्श बैंच पर बैठ जाता है |

जी किस प्रकार से मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ ? आपका क्या केस है ? कहीं कोई लड़ाई का किस्सा है क्या ? या फिर शादी – तलाक़... ? वकील ने मीठे स्वर में पूछा | आदर्श कुछ जबाब दे पाता कि तब तक एक और महाशय उसी बैंच पर आकर बैठ जाते हैं जो शक्ल से ही वकील साहब के जी हुजूरी करने वाले लगते हैं  | देखिये वकील साहब न तो कोई लड़ाई का केस है और न ही शादी -  तलाक़ का  | दरसल मैं एक संस्था खोलना चाहता हूँ | इसको खोलने के लिए क्या प्रक्रिया है बस यह जानने आया हूँ | वरना काले कोट और ख़ाकी को कौन देखना चाहता है |
ओ .. तो आप समाज सेवक हैं ? और संस्था के माध्यम से समाज की सेवा करना चाहते हैं ? पास ही में बैठे सज्जन ने बनावटी मुद्रा से पूछा |
समाज शब्द का उच्चारण होते ही आदर्श के चेहरे के भाव ही बदल जाते हैं  | मानों महाशय ने मिट्टी तेल में भीगी लकड़ी को आग दिखा दी हो | कोयले सुलग ही रह थे जैसे उन्हें हवा मिल गयी हो |
कोई दुश्मन की भी सेवा करता है क्या  ? आदर्श ने गुस्से  से कहा
क्या मतलब ? वकील ने आश्चर्य से पूछा

मेरा सबसे बड़ा दुश्मन तो समाज ही है | न मैं कोई समाज सेवक हूँ और न ही मैं इसकी सेवा करना चाहता हूँ | बल्कि मैं तो इस समाज के खिलाफ़ ही इस संस्था को जीवित करने आया हूँ |
किस समाज की बात कर रहें हैं आप ?  जो हर कदम पर घाव और पीड़ा देता है वो समाज | न जाने कितनी संस्थाएं  इस समाज को गरीब, असहाय और दुखी जानकर इसे पाल रहीं  हैं | पर ये समाज लोगों को सिर्फ़ ताने और बदनामी के दाग देता है और कुछ नहीं | मैंने जब – जब इसे एकता की माला में पिरोना चाह तो इसने मेरे ही ख़ुशी के मोती बिखेर दिये | न जाने कितने ही अनगिनत किस्से हैं, बाते हैं जिन्हें गिनाने लगूं तो ये जीवन कम पड़ जाये |

एक  लड़की जिसकी आवरू समाज के सामने लुट जाती है और ..और ये तुम्हारा समाज सिर्फ़ मौन बने खड़ा रहता है | और फिर ...कुछ दिन गुजर जाने के बाद उसी को दोषी ठहराता है |
प्रतिदिन कोई न कोई  बेटी फांसी पर सिर्फ़ इसलिए झूल जाती है क्योंकि वो किसी दूसरी जाति के लड़के से अटूट प्रेम करती थी | और उसका पिता, उसकी माँ इस समाज को तो जीत लेते हैं लेकिन  अपनी लाड़ली बेटी को हार जाते हैं  |
एक माँ जिसने अपनी आँखें दरवाजे की चौखट पर रख दी हैं अपने बेटे के इंतजार में जो इसलिए बहुत दूर चला गया है क्योंकि वो बेरोजगार था | जिसकी जिम्मेदार समाज की आलोचनाएँ हैं |
किसी के सपनों का आशियाना लपटों के हवाले हो तो ये समाज उन्हें बुझाने की वजाय कभी  हाथ सेकते नजर आता है और कभी उसमें अपने गीले कपड़े सुखाते नज़र आता है |
मझे आज भी याद है वो काला दिन, एक्सीडेंट हुआ था एक छ: वर्ष का बच्चा खून में लथपथ अपनी माँ के आँचल में रो रहा था और उसका पिता भी गंभीर रूप से घायल हो गया था | दोनों ही अन्तिम सांसे गिन रहे थे | माँ और पिता  अपने बेटे को देख रहे थे | दोनों का शरीर खून से भीगा हुआ था और आँखों में पानी ...कहाँ रुका था आँखों का पानी  ..बस बहता जा रहा था | शायद आँखों को पता चल गया था कि ये आखिरी बार ही देख रहीं हैं अपने बेटे को | और थोड़ी ही देर बाद आँखों से बहता पानी थम जाता है ..   पूरे दिन वह बच्चा सड़क पर रोता रहा | उसे तो ये भी नहीं पता है कि उसके सर से माँ का आँचल और पिता का साया हट चुका है |  अब वो अनाथ हो चुका है | इस समाज के पहिये उस सड़क पर दौड़ते रहे | अगर कोई समय रहते उन दोनों को अस्पताल पंहुचा देता ....तो शायद वो मासूम अनाथ न होता |

ये किस्सा बताते - बताते आदर्श का गला भर आया था, होठ कांपने लगे थे और आँखे भीग चुकी थी | आँखों को पोछते हुए आदर्श ने कहा  वकील साहब इस समाज की परिभाषा किताबों में जितनी साफ़ सुथरी है वास्तविक जीवन में  उससे कहीं ज्यादा काली और भद्दी है | आपको मंचों पर भाषणों में समाज के बखान तो सुनने को बहुत मिल जायेंगे | हम एक हैं, जाति – धर्म कुछ नहीं हैं वगैरह वगैरह .. लेकिन ये सिर्फ़ शब्दों का आडंबर मात्र हैं |

मैंने अब तक जो भी कुछ देखा है उसके विशलेषण से इस समाज की बस एक ही परिभाषा सामने आती है “जो आपकी  जीत पर जलता है  और हार पर हँसता है वही समाज है |”   
समाज की इसी परिभाषा को बदलने के लिए ही मैं इस संस्था “एक संस्था समाज के खिलाफ़”  को शुरु करना चाहता हूँ | माफ़ करना महाशय, माफ़ करना वकील साहब मैं कुछ ज्यादा ही उग्र और भावुक हो गया था | पर इस समाज का नाम सुनते ही कुछ ऐसा ही हो जाता हूँ |
वकील साहब और महाशय जी आदर्श को देखते ही रह जाते हैं |
वकील साहब मुझे क्या - क्या करना होगा ?   कौन - कौन से प्रमाण पत्रों की जरूरत होगी ?   आदर्श ने शान्त भाव से पूछा
फिर वकील साहब पूरी प्रक्रिया समझाने लगते हैं |
वकील साहब आपकी फ़ीस कितनी हुई  ? आदर्श ने झिझकते हुये पूछा
ये कोट अभी इतना काला नहीं हुआ है इस कचहरी के रंग में, जो आप जैसे व्यक्ति से भी फ़ीस लेगा – वकील साहब ने पूरी इमानदारी से कहा
अगर हो सके तो मुझे भी इस संस्था का सदस्य बना लीजिये |
आदर्श – जी बिल्कुल
आदर्श ने पहली ही मुलाकात में वकील साहब के ऊपर  ऐसी छाप छोड़ी कि वकील साहब आदर्श को कचहरी के दरवाजे तक छोड़ने आते हैं  और उससे एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछने की अनुमति चाहते हैं |
जी निशंकोच पूछिए – आदर्श ने मुस्कुराते हुए कहा
जब आपने वो किस्से बताये उनमें से उस बच्चे वाले किस्से पर आपकी ऑंखें भर आयीं ऐसा क्यों ?
वकील साहब के प्रश्न ने मानों आदर्श की चलती नब्ज़ पकड़ ली हो |
आदर्श एक पल तो वकील साहब को देखता है और फिर गंभीर भाव से कहता है ..
क्योंकि... क्योंकि वो अनाथ बच्चा मैं ही हूँ ..
और इतना कहकर वहाँ से चला जाता है | 

रचनाकार : गौरव हिन्दुस्तानी